सुभाष चन्द्र बोस और राष्ट्रीय आन्दोलन
- Pavan Chodhary

- Jul 26
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Updated: Aug 3
जीवन परिचय
जन्म :कटक (उड़ीसा, तत्कालीन बंगाल प्रान्त)
स्वामी विवेकानंद से अत्यधिक प्रभावित थे।
1920 में आई.सी.एस. परीक्षा में चौथी रैंक प्राप्त की, लेकिन 1921 में त्यागपत्र दे दिया और राजनीतिक जीवन में पदार्पण किया।
राजनीतिक जीवन

1921–32 (कांग्रेस की गतिविधियाँ)
· सिविल सेवा से त्यागपत्र देने के बाद देशबन्धु चितरंजन दास के संपर्क में आए। उन्हें अपना राजनीतिक गुरु माना और राष्ट्रीय गतिविधियों में भाग लेना
शुरू किया।
1922 में गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन स्थगित किए जाने को बोस ने “राष्ट्रीय आपदा” कहा था।
· जिन पदों पर रहे—
o नेशनल कॉलेज (जिसकी स्थापना सी.आर. दास ने की थी) के प्राचार्य बने।
o 1924 में कलकत्ता नगर निगम के CEO बने।
o अखिल भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे।
o स्वराज पत्रिका आरम्भ की तथा फॉरवर्ड पत्रिका (सी.आर. दास की) का संपादन किया।
· बंगाल में राष्ट्रवादी गतिविधियों के कारण गिरफ्तार कर लिए गए और मांडले जेल (बर्मा) भेजे गए, पर 1927 में टी.बी. की बीमारी के कारण रिहा कर दिए गए।
· नेहरू जी के साथ मिलकर राष्ट्रीय राजनीति में भाग लेना आरम्भ किया। 1929 में AITUC (एटक) के अध्यक्ष बने।
· 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। इसी दौरान सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया, लेकिन गांधी इरविन समझौते के अंतर्गत रिहा कर दिया गया।
· बाद में दोबारा गिरफ्तार कर जबलपुर व मद्रास जेल में रखा गया।
1932–39
· लगभग पाँच वर्षों तक यूरोप की यात्रा की। उद्देश्य—
· 1935 में रोम (इटली) में फासीवादी नेता मुसोलिनी से भेंट की और अपनी पुस्तक Indian Struggle भेंट की।
Indian Struggle पुस्तक दो भागों में लिखी— o भाग 1 : 1920–34 तक का भारतीय संघर्ष (लंदन, 1935) o भाग 2 : 1934–42 तक का (रोम, 1940), इसे लिखने में पत्नी एमिली शेंकल बोस (वियना) ने सहयोग दिया। |
1937 में पुनः भारत आए।
1938 के कांग्रेस अधिवेशन, हरिपुरा (गुजरात) में, सुभाष चंद्र बोस निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए।
1939
त्रिपुरी (मध्य प्रदेश) कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने गांधीजी के समर्थित उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को 1580 बनाम 1377 मतों से पराजित किया।
सुभाष चंद्र बोस की जीत में एम. थावर का योगदान माना जाता है। इस पराजय को गांधीजी ने अपनी निजी हार बताया।
मार्च 1939 में त्रिपुरी में वार्षिक बैठक आरम्भ हुई, मतभेदों के चलते 29 अप्रैल 1939 को बोस ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
इसके बाद राजेन्द्र प्रसाद को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस्तीफे की प्रशंसा की और बोस को “देशनायक” की उपाधि दी।
3 मई 1939 को सुभाष चंद्र बोस ने उन्नाव (उत्तर प्रदेश) में फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया। इसकी घोषणा कलकत्ता रैली में की।
प्रथम सत्र : जून 1939 में बंबई में पहला सत्र आयोजित हुआ।
जून 1940 में फॉरवर्ड ब्लॉक का पहला सम्मेलन नागपुर में हुआ।
इस दल का एम.एन. रॉय और जयप्रकाश नारायण ने विरोध किया।
सुभाष चंद्र बोस को 3 वर्षों के लिए कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया।
गांधीजी ने सुभाष चंद्र बोस को “बिगड़ैल बच्चा और मेरा बच्चा” कहकर संबोधित किया।
2/3 जुलाई 1939 को हॉलवेल स्मारक हटाने के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ने का निर्णय लिया, लेकिन आंदोलन शुरू होने से पूर्व ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
कलकत्ता जेल में रखा गया, स्वास्थ्य खराब होने पर उन्हें घर में नजरबंद कर दिया गया—17 जनवरी 1941 को वे नजरबंदी से भाग गए—इसे “ग्रेट एस्केप” कहा जाता है।
वे मौलवी का भेष धरकर कलकत्ता से गमोः रेलवे स्टेशन पहुँचे,
फिर दिल्ली और वहाँ से पेशावर तक की यात्रा मोहम्मद जियाउद्दीन के रूप में पूरी की।
पेशावर में इटली दूतावास में Orlando Mazzotta नाम से जाली पासपोर्ट बनवाया और मास्को के रास्ते जर्मनी पहुँचे।
बर्लिन (जर्मनी) पहुँचने पर मंत्री रिबनट्रॉप ने स्वागत किया ।
जर्मनी में किए गए कार्य · Indian Independence Centre की स्थापना की, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश के खिलाफ प्रचार करना था। इसमें सी.एन. नाम्बियार, गिरिजा मुखर्जी और एम.आर. व्यास शामिल थे। · ड्रेसडेन में बर्लिन रेडियो / आज़ाद रेडियो का आरम्भ किया (एम.आर. व्यास द्वारा), यह प्रसारण 7 भारतीय भाषाओं में होता था। · 4000 भारतीयों को मिलाकर Indian Legion नाम से सेना का गठन किया (दिसंबर 1941, बर्लिन)। · 29 मई 1942 को हिटलर से मुलाकात की, जो असफल रही। |
जापान और आज़ाद हिंद फौज
हिटलर से असफल भेंट के बाद बोस ने जापान जाने का निर्णय लिया।
आबिद हुसैन के साथ 9 फरवरी 1943 को जर्मन पनडुब्बी (U-180) से जापान के लिए रवाना हुए और मेडागास्कर के पास जापानी पनडुब्बी (I-29) में सवार हो गए।
जापानी नाव में सवार होने पर उन्हें छद्म नाम “मित्सुदा” दिया गया।
16 जुलाई 1943 को टोक्यो पहुँचे, जहाँ तोजो ने उनका स्वागत किया।
4 जुलाई 1943 को रास बिहारी बोस ने सुभाष चंद्र बोस को इंडियन इंडिपेंडेंस लीग (IIL) का प्रमुख बना दिया।
इसी दिन बोस ने ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की और नारे दिए—“दिल्ली चलो”, “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।”
· 25 अगस्त 1943 को आज़ाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया और रंगून व सिंगापुर में मुख्यालय बनाए।
आई.एन.ए. की रेजीमेंटें · नेहरू रेजीमेंट · मौलाना आज़ाद रेजीमेंट · गांधी रेजीमेंट · सुभाष रेजीमेंट (शाहनवाज खान) · झाँसी रेजीमेंट (लक्ष्मी सहगल, स्वामीनाथन) |
सिंगापुर सरकार
21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में भारतीय सरकार का गठन किया—भारत के बाहर पहली मान्यता प्राप्त सरकार, जिसे जापान, क्रोएशिया, वर्मा, जर्मनी, इटली, नानकिंग, मंथुका, थाईलैंड, फिलीपींस ने मान्यता दी, वहीं आयरलैंड ने प्रशंसा पत्र भेजा।
इस सरकार के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और सेनापति तीनों पदों पर बोस स्वयं रहे।
वित्त मंत्री – ए.सी. चटर्जी
महिला मंत्री – लक्ष्मी स्वामीनाथन
प्रचार मंत्रालय – एस.ए. अय्यर
21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर सरकार के मुखिया के रूप में कैथल में उन्होंने शपथ ली—
“मैं ईश्वर की शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं भारत और भारत के 38 करोड़ नागरिकों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करूँगा।”
अंडमान व निकोबार द्वीपों को जीतकर नाम रखा—
अंडमान : शहीद द्वीप
निकोबार : स्वराज द्वीप
प्रशासक : लोगानाथन
ऑपरेशन यू-गो के तहत रंगून/मंडले/अरकान होते हुए भारत में प्रवेश करने का अभियान चलाया।
18 मार्च 1944 को सेना भारत में प्रवेश करती है और 14 अप्रैल को मणिपुर के मोरांग पर कब्जा करती है, इंफाल को घेर लेती है।
मानसून के कारण जापान से संपर्क टूट गया।
6 जुलाई 1944 को रेडियो रंगून से गांधीजी को संबोधित कर कहा—
“भारतीय स्वतंत्रता का अंतिम युद्ध शुरू हो चुका है, राष्ट्रपिता हमें आज्ञा दें।”
INA की पराजय के बाद बोस 1945 में सिंगापुर गए, वहाँ से 13 अगस्त को फार्मूसा द्वीप पहुँचे और 18 अगस्त 1945 को विमान दुर्घटना में वीरगति को प्राप्त हुए।
मृत्यु की जाँच के लिए खोसला आयोग और मुखर्जी आयोग गठित किए गए, पर आज भी संदेह बना हुआ है।
लाल किला मुकदमा (INA ट्रायल)
बोस की मृत्यु के बाद INA के सैनिकों व अधिकारियों पर 5–11 नवंबर 1945 को लाल किले में मुकदमा चला।
INA की ओर से सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, एन. काटजू, अरुणा आसफ अली और भूलाभाई देसाई ने पक्ष रखा।
कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों और मेजर शाहनवाज खान को फाँसी की सजा सुनाई गई।
विरोध को देखते हुए तत्कालीन वायसराय वेवेल ने मृत्युदंड की सजा कम कर दी
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